Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



95 . साहसी चित्रकार : वैशाली की नगरवधू

अम्बपाली ने आंखें खोलीं, उनकी स्मृति काम नहीं दे रही थी । उन्होंने आंखें फाड़ फाड़कर इधर - उधर देखा । सामने उनका अश्व मरा पड़ा था । उसके निकट ही वह भीमाकार सिंह भी । उसे देखते ही अम्बपाली के मुंह से चीख निकल पड़ी । इसी समय किसी ने हंसकर कहा - “ डरो मत मित्र, सिंह मर चुका है। ”

अम्बपाली ने देखा - एक छरहरे गात का लम्बा- सा युवक सामने एक शिलाखण्ड पर खड़ा मुस्करा रहा है । अम्बपाली से आंखें चार करते हुए उसने कहा -सिंह मर चुका मित्र; क्या तुम्हें अधिक चोट आई है ? मैं उठने में सहायता दूं ? ”

अम्बपाली अपने पुरुषवेश को स्मरण कर संकट में पड़ी । उन्होंने घबराकर कहा - “ नहीं -नहीं, धन्यवाद, मुझे चोट नहीं आई, मैं ठीक हूं। ”यह कहकर वह व्याकुल सी अपने अस्त -व्यस्त वस्त्रों को ठीक करने लगीं ।

युवक ने तनिक निकट आकर हंसते हुए कहा - “ वाह मित्र, तुम्हारा तो कण्ठ- स्वर भी स्त्रियों - जैसा है, कदाचित् कोई सेट्टिपुत्र हो ? किसी सामन्तपुत्र के संगदोष से मृगया को निकल पड़े ? ”

अम्बपाली ने सिर हिलाकर सहमति प्रकट की ।

“ ठीक है, और कदाचित् आखेट में आने का यह प्रथम ही अवसर है ? ”

“ हां मित्र, पहला , “ अम्बपाली ने झेंप मिटाने को मुस्कराकर कहा। ।

युवक एक बार खूब ठठाकर हंस पड़ा । उसने कहा - “ और तुम्हें पहले - पहल सिंह के आखेट में आने के लिए तुम्हारे उसी मित्र ने सम्मति दी होगी जो तुम्हारे साथ था ? ”

“ जी हां , परन्तु वे हैं कहां ? ”

“ सम्भवतः वह सुरक्षित अपने डेरे में पहुंच गए होंगे । सिंह की गर्जना सुनकर उनका घोड़ा ऐसा भागा कि मैं समझता हूं कि वह बिना अपने वासस्थल पर गए रुकेगा नहीं। ”

इतना कहकर युवक फिर ही - ही करके हंसने लगा। उसने कहा - “ बड़ा कौतुक हुआ मित्र, मैं उस पुष्करिणी के उस छोर पर बैठा अस्तंगत सूर्य का एक चित्र बना रहा था । कोई आखेट करने इधर आए हैं , यह मैं तुम लोगों की बातचीत तथा अश्वों की भनक सुनकर समझ गया था । हठात् सिंह- गर्जन सुन मैंने इधर - उधर देखा तो तुम लोगों से दस हाथ दूरी पर सिंह को आक्रमण के लिए समुद्यत तथा तुम लोगों को असावधान देखकर मैं बरछा लिए इधर को लपका। सो अच्छा ही हुआ , ज्यों ही सिंह विकट गर्जन करके तुम्हारे अश्व पर उछला , मेरा बरछा उसकी पसलियों को चीरकर हृदय में जा अड़ा। तुम खड्ड में गिर पड़े । सिंह तुम्हारे अश्व को लेकर इधर गिरा, उधर तुम्हारे मित्र को लेकर उनका अश्व एकदम हवा हो गया । खेद है मित्र तुम्हारा वह सुन्दर काम्बोजी अश्व मर गया । ”

अम्बपाली अवाक् रहकर मृत अश्व को देखने लगीं। फिर उन्होंने कहा - “ धन्यवाद मित्र , तुमने प्राणरक्षा कर ली है। परन्तु अब मैं मधुवन तक कैसे पहुंचूं भला ? सूर्य तो अस्त हो रहा है । ”

“ असम्भव है । एक मुहूर्त में अन्धकार घाटी में फैल जाएगा। दुर्भाग्य से तुम्हारा अश्व मर गया है और इस समय अश्व मिलना सम्भव नहीं है, तथा मधुवन यहां से दस कोस पर है, जा नहीं सकते मित्र। पर चिन्ता न करो, आओ, आज रात मेरी कुटिया में विश्राम करो मेरे साथ। ”

“ तुम्हारे साथ ! आज रात ! असम्भव। ”अम्बपाली ने सूखते कण्ठ से कहा और व्याकुल दृष्टि से युवक की ओर देखा ।

युवक ने और निकट आकर कहा- “ असम्भव क्यों मित्र। परन्तु निस्सन्देह तुम बड़े सुकुमार हो , कुटिया तुम्हारे योग्य नहीं , पर कामचलाऊ कुछ आहार और शयन की व्यवस्था हो जाएगी । यहां पर तो अकेले वन में रात व्यतीत करना तुम्हारे - जैसे सुकुमार किशोर के लिए उपयुक्त नहीं, निरापद भी नहीं है। ”

अम्बपाली ने कुछ सोचकर कहा - “ मित्र , तुम क्या यहीं कहीं निकट रहते हो ? ”

“ कुछ दिन से , उस सामने की टेकरी पर, उस कुटिया को देख रहे हो न ? ”

“ देख रहा हूं , पर तुम इस विजन वन में करते क्या हो ?

युवक ने हंसकर कहा - “ चित्र बनाता हूं । यहां का सूर्यास्त उन पर्वतों की उपत्यकाओं में ऐसा मनोरम है कि मैं मोहित हो गया हूं। ”

“ तो तुम चित्रकार हो मित्र ?

“ देख नहीं रहे हो , यह रंग की कूर्चिका और यह चित्रपट ! ”

“ हं , और यह बर्ला ? यह अमोघ हस्तलाघव ? यह अभय पौरुष ? यह सब भी चित्रकला में काम आने की वस्तुएं हैं ? ”

युवक फिर हंस पड़ा। उसने कहा - “ मित्र , केवल कण्ठ -स्वर ही नहीं , बात कहने का और प्रशंसा करने का ढंग भी तुम्हारा स्त्रैण है, कुपित मत होना । इस हिंस्र अगम वन में एकाकी बैठकर चित्र बनाना , बिना इन सब साधनों के तो बन सकता नहीं , परन्तु बातों ही - बातों में सूर्य अस्त हो जाएगा तो तुम्हें कुटी तक पहुंचने में कठिनाई होगी । आओ चलें मित्र , क्या मैं तुम्हें हाथ का सहारा दूं ? कहीं चोट तो नहीं आई है ? ”

“ नहीं- नहीं, धन्यवाद ! मैं चल सकने योग्य हूं , तुम आगे- आगे चलो मित्र ! ”

और कुछ न कहकर अपनी रंग की तूलिका, कूर्च और चित्रपट हाथ में ले तथा बर्खा कन्धे पर डाल आड़ी-टेढ़ी पार्वत्य पगडण्डियों पर वह तरुण निर्भय लम्बे - लम्बे डग भरता चल खड़ा हआ और उसके पीछे अछताती -पछताती देवी अम्बपाली पुरुष- वेश के असह्य भार को ढोती हुईं ।

कुटी तक पहुंचते - पहुंचते सूर्यास्त हो गया । अम्बपाली को इससे बड़ा ढाढ़स हुआ । उनकी कृत्रिम पुरुष - वेश की त्रुटियां उस धूमिल प्रकाश में प्रकट नहीं हुईं , परन्तु इस नितान्त एकान्त निर्जन वन में एकाकी अपरिचित युवक के साथ रात काटना एक ऐसी कठिन समस्या थी जिसने देवी अम्बपाली को बहुत चल -विचलित कर दिया ।

कुटी पर पहुंचकर युवक ने देवी को प्रांगण में एक शिला दिखाकर कहा - “ इस

शिला पर क्षण - भर बैठो मित्र, मैं प्रकाश की व्यवस्था कर दूं। ”

इतना कहकर और बिना ही उत्तर की प्रतीक्षा किए वह कुटी में घुस गया । पत्थर घिसकर उसने आग जलाई । फिर उसने बाहर आकर कहा - “ उस मंजूषा में आवश्यक वस्त्र हैं और उस घड़े में जल है, सामने के ताक पर कुछ सूखा हरिण का मांस और फल रखे हैं , अपनी आवश्यकतानुसार ले लो । संकोच न करना । मैं थोड़ा ईंधन लेकर अभी आता हूं। ”

इतना कहकर कुटी द्वार से एक भारी कुल्हाड़ी उठा कंधे पर रखकर लम्बे - लम्बे डग भरता हुआ वह अन्धकार में विलीन हो गया ।

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